Thursday 9 June 2016

आप तो मां हैं.... 
मधु चोपड़ा जी के नाम खुला पत्र ,   
            आदरणीय मधु चोपड़ा जी ,  आप तो मां हैं , एक बहुत ही होनहार बेटी की मां... !!  आप तो मां का अर्थ भी बहुत अच्छे तरीके से समझती होंगी ,  फ़िर आपने ये क्या किया...?  एक मां होकर , दुसरे मां की इज्जत को तार तार कर दिया  !?   भोजपुरी हमारी मातृभाषा है... हमारी मां है ... और आपने अपने पैसे के ज़ोर पर , पहले से बदनामी का दाग ढ़ो रहे , भोजपुरी सिनेमा में और चार चांद लगाते हुए , आंचल से तार तार हुई भोजपुरी सिनेमा को  निवस्त्र करने तक को तैयार हो गईं... !?  वो भी किस लिए... बस पैसे कमाने के लिए...!?   अरे अब आपके पास पैसे की कौन सी कमी है... !?   फ़िर ऐसा अशोभनीय कदम क्युं... ??    जब हमने सुना , प्रियंका चोपड़ा जी भोजपुरी सिनेमा बना रही हैं , मन बहुत प्रसन्न हुआ ।  एक आस जगी  कि आपकी बेटी प्रियंका जी , देश – दुनिया देख रही हैं , घूम रही हैं , पूरे दुनिया के सिनेमा को समझ रही हैं , अब वो ज़रूर भोजपुरी सिनेमा में भी बदलाव करेंगी... लेकिन यहां तो सब उल्टा ही हो गया  , बदलाव तो छोडिये , आपने सिनेमा बनाने के लिए ऐसे लोगों को जमा किया , जो पहले से ही अपनी मां को बज़ार में खड़ा कर , निलामी की बोली लगाता आ रहा है  ।  वो लोग तो नीचता की सारी सीमायें पहले ही लांघ चुके हैं , लेकिन थोड़ा आपको भी सोचना चाहिए कि किसको अपने साथ जोड़ना चाहिए... किसको नहीं...  !!  ताकि आपका जो सामाजिक मान है वो बना रहे । ज़रा सोचिए , जिसको अपनी फ़िल्म के लिए एक नाम भी भोजपुरी में नहीं मिला है ... ( बम बम बोल रहा है काशी – हिन्दी  )  वो भोजपुरी सिनेमा के साथ क्या न्याय करेगा... !?   आपकी बेटी प्रियंका जी ,पद्म श्री से सम्मानित , पटना में जा कर पाप की भागिदार बनने वाली हैं... वो भी आपके साथ कंधा से कंधा मिला कर ।  भोजपुरी सिनेमा के अस्तित्व को मिटाने के लिए ,  हमारे मां सरीखी भोजपुरी भाषा के सिनेमा का  बाज़ार में बोली लगायेंगी  तो फ़िर  वह कभी देश – दुनिया में ये ढ़िंढ़ोरा मत पीटें कि वो मां की इज्जत करती हैं ,  बेटी को बराबर समझती हैं । आपको मालूम भी है कि ... आपके द्वारा निर्माण किये हुए फ़िल्म में कैसे कैसे गाने का चुनाव हुआ है... और उसका शाब्दिक अर्थ क्या है... ??  उसका अर्थ बताने के लिए कम्पुटर पर हमारी उंगलियां नहीं चल रही... लेकिन आपको बताना ज़रूरी है... और ये भी बताना ज़रूरी है कि आपलोग किस स्तर तक गिर के भोजपुरी सिनेमा के लिए काम किये हैं... !!   माफ़ी के साथ  -    गीत -   बोलेरो के चाभी से गोद देला नाभी.... मतलब – ब्लेरो जो एक कार (Jeep ) है .... उसकी चाभी यानी “ key” नाभी के चुभाने की बात कर रहा है ,     फ़िर -   कीर्तन करेला कमरिया  , खटिया से खटिया सटावे ,  इन सब का अर्थ आपको अच्छे से समझ आ रहा होगा !   और इसे फ़िल्माने के तरीके ने तो अश्लीलता की सारी सीमायें पार कर दी है ।   बताईए... इन जैसे सोच के लोगों के साथ काम कर रही हैं आप मां – बेटी  !?    हम आपकी और आपकी बेटी की सोच और समझ से स्तब्ध हैं ।   ज़रा सोचिये... जिसकी बेटी दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना रही है... उनकी मां , भोजपुरी जैसी लोकप्रिय भाषा को , बस अपने मन की मंसा को पुरा करने के लिए , उसकी इज्जत उतार कर बाज़ार में बेच रही हैं और उसकी कीमत ज्यादा मिले... इसके लिए... अपनी विश्व विख्यात बेटी से प्रचार - प्रसार भी करवा रही हैं... !   
                                                मैं बहुत दुखी हैं...  आपकी इस करनी से , इसलिए आपको ये खुला पत्र लिख रहा हूं... ये जानते हुए भी कि इस पत्र से आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा... आप बस अपने धुन में लगी रहेंगी  । लेकिन शायद जो भोजपुरी भाषा को अपनी मां समझता है... उसके मन को थोड़ी शांती मिलेगी  , वैसे हम अभी भी बेचैने हैं... और उसी बेचैनी के साथ ....  आपको सादर प्रणाम !! 

                                                                        अमित झा  
रऊआ तऽ माई हंई...
मधु चोपड़ा जी के नामे खुला पतरी :-    
            आदरणीय मधु चोपड़ा जी ,   रउआ तऽ माई हंई... !!   येतना होनहार बेटी के माई…. !!  रऊआ तऽ माई के अर्थ बहुत अच्छा से बुझत होखब ,   फ़ेर रऊआ ई का कईनी..?   एगो माई हो के ,  दोसर माई के इज्जत के तार तार कई देहनी  ।  भोजपुरी हमार माईभाखा हीय , हमनी के माई हीय , आ  रऊआ अपना पईसा के ज़ोर पर  ,  पहिले से बदनामी के दाग ढो रहल ,  भोजपुरी सनिमा में अऊर चार चांद लगावत ,  अंचरा से तार तार भईल भोजपुरी सनिमा के ,  निवस्त्र करे तक के तईयार हो गईनी ..!?   उहो काहे ला  !?   बस पईसा कमाये खातिर.. !?    अरे अब रऊआ लगे पईसा के कवन कमी... !?   जब हमनी सुननी , प्रियंका चोपड़ा जी भोजपुरी सनिमा बनइहें  ,  मन बड़ा प्रसन्न भईल ,  एगो आस जागल कि राउर बेटी प्रियंका जी...  दिन-दुनिया देखऽ तारी... घुमऽ तारी , पूरा दुनिया के सनिमा  समझऽ तारी ,  उ भोजपुरी सनिमा में बदलाव करीहें  बाकि इहां तऽ सब उलिट-पलिट हो गईल... बदलाव तऽ छोड़ीं , रऊआ सनिमा बनावे ला अईसन लोग जमा कईनी... जे पहिले से आपन माई के बाजार में खड़ा कई के बोलि लगा रहल बाऽ...  ओकनी तऽ नीचता के सारा सीमा लांघीये चुकल बाडन सं... बाकि तनी रऊओ सोचे के चाहीं.... ! आखिर केकरा के जोड़नी रऊआ अपना संगे...!?  अरे...  जेकरा भोजपुरी में येगो नाम तक ले ना जुराईल.... ( बम बम बोल रहा है काशी – हिन्दी )   उ भोजपुरी सनिमा संगे का न्याय करी... ??  राउर बेटी , प्रियंका जी ... पद्म श्री से स्मानित ,  पटना में जा के पाप के भागिदार बनिहें....  उहो रऊआ संगे कंधा से कंधा मिला के , भोजपुरी सनिमा में अस्तित्व मिटावे ला... हमरा माई सरीखा भोजपुरी भाखा के सनिमा के बाजार में बोली लगईहें... तऽ फ़ेर राउर बेटी दिन दुनिया में इ ढ़िंढ़ोरा मत पिटीहें कि... हम माई के इज्जत करेनी... हम बेटी के बराबर समझेनी.... !! रउआ लोगिन के मालूम बा...  रउअर बनावल सनिमा में रउआ गाना कईसन चुनले बानी...!? रउआ शायद ओकर शाब्दिक अर्थ ना मालूम होई...  जेकर अर्थ कहे में हमार अंगुरी कंप्युटर पर नईखे चलत... बाकि रऊआ के बतावल ज़रूरी बा...  कि रऊआ कौना स्तर तक नीचे गीर के इ काम कईले बानी... !!   गीत -   बोलेरो के चाभी से गोद देला नाभी.... मतलब – ब्लेरो जो एक कार (Jeep ) है .... उसकी चाभी यानी “ key” नाभी के चुभाने की बात कर रहा है”   फ़ेर -   कीर्तन करेला कमरिया.... , खटिया से खटिया सटावे...  !!  अईसन सोच के लोग के संगे काम करऽ तानी रऊआ.... ।   हमरा रऊआ आ राऊर बेटी के सोच पर बलिहारी बाऽ...  !!   सोचीं....  जेकर बेटी दुनिया में अपन पहचान बना रहल बा... ओकर माई.... भोजपुरी जईसन लोकप्रिय भाखा के .... बस आपन मन के मंसा पुरावे ला.... ओकर इज्जत उतार के बाजार में बेच रहल बा आ बेसी दाम मिले... ये खातिर... विश्व विख्यात बेटी से प्रचार – प्रसार करवा रहल बाऽ... !!  
                                                हम बहुत दुखी बानी... राउर इ करनी से ,  येही खातिर... रऊआ के  इ खुला पतरी लिख रहल बानी... !!  हम इ जानऽ तानी ... इ पतरी से रउआ कवनो फ़रक ना पड़ी... ! रऊआ बस आपन धुन में लागल बानी... ! बाकि शायद जे भोजपुरी भाखा के आपन माई बुझेला ... ओकरा मन के शांति मिली... ! वईसे हमर मन अभीयो बेचैने बा.... ! उहे बेचैनी के साथ...  रऊआ के सादर प्रणाम... !!

                                                अमित झा   

Friday 3 October 2014

गांधी मैदान

शासन का षड्यंत्र ...
या तय विधि का विधान .... 
गांधी मैदान .. !! 
रावण को दहन रावण आये ... 
राम का हुआ अपमान ... ! 
फूटे पटाखे , छुटी फुलझड़ियाँ ...
कितने घर हुये बियावान ...!!
गांधी मैदान... !! 
बच्चों को कुचल महिसासुर ने...
माँ का आँचल किया लहूलुहान...!
अब बारी दोषारोपण की... 
कौन अपराधी , कौन शैतान ...!! 
गांधी मैदान... !! 
घायल को मिलेंगे पैसे ...
मरनेवालों को मिलेंगे दान ...! 
मुख के वीर , करनी के चोर... 
बतायेंगे देश महान ...!! 
गांधी मैदान... !! 

Wednesday 17 July 2013

माई...!! हम भुखे रहती... त जीयत रहती...


माई...!! हम भुखे रहती... त जीयत रहती...
     सरकारी खाना खा के मर गईनी....
     हम तोहार दुध के कर्ज ना चुका पईनी... !!
            गईल रहनी पढ़े... ढ़ाई आखर प्रेम के...
            लील गईल हमरा के... जहर इ तेल के...
            छुटल तोहर अंचरा के साथ... बाबु के हाथ...
            जिनगी के लडाई हम हार गईनी...
            हम तोहार दुध के कर्ज ना चुका पईनी... !!
      मरलो पर चैन नईखे...  देख राजनीति के खेल...
      तीर करेजा चीर देहलक... कमल भी हो गईल फ़ेल...
      अब लालटेनो इ तेल में जर ना पाई...
 एकरो हाथ के साथ छूट जाई..
       तोहरो दूध इ जालिमन के माफ़ ना करी...
       अब त उपरे वाल इंसाफ़ करी.....
       हम ले के आयेम दोसर जनम...
       करब सब के किस्सा खतम... इ खा के कसम
हम सरकारी खाना ना खाईब...
     तबे तोहार दूध के कर्ज चुका पाईब... ! 

Sunday 2 June 2013

मैं माओवादी हूं... ए.के. फ़ोर्टी सेवेन रखता हूं...

मैं माओवादी हूं... ए.के. फ़ोर्टी सेवेन रखता हूं...

रहने को घर नहीं... सोने को बिस्तर नहीं...
खाने को अनाज़ नहीं... मैं जंगल दर जंगल भटकता हूं...
मैं माओवादी हूं... ए.के. फ़ोर्टी सेवेन रखता हूं...

     शांती दूत हूं मैं...  मिट्टी का सपूत हूं मैं ...
     गरीबो का मसीहा हूं... उनके हक के लिए लड़ता हूं...
     मैं माओवादी हूं... ए.के. फ़ोर्टी सेवेन रखता हूं...

कोई भूमि मेरा छुये मंजूर नहीं... अब दिल्ली दूर नहीं...
हर तरक्की रोक दूंगा,बोलोगे तो ठोक दूंगा.. बस अपनी बात ही सुनता हूं.. 
मैं माओवादी हूं... ए.के. फ़ोर्टी सेवेन रखता हूं...

Wednesday 27 June 2012

आओ... Gangs of वासेपुर को गाली देते हैं....!


Gangs of  वासेपुर ....   क्या फ़िल्म है भाई...  देख के मन गदगद हो गया... !!  देख तो मैंने पहले दिन ही लिया था... अभी तक तीन बार देख चुका हूं... !  पर कुछ लोगों ने मन बना लिया है...  आओ... Gangs of  वासेपुर को गाली देते हैं....!   अनुराग कश्यप की फ़िल्म है... अच्छा...??  चलो फ़िर मिल के कुछ उल्टा - सीधा कहते हैं... !   कुछ तो जापान और चाईना में बैठे सिर्फ़ फ़िल्म का ट्रेलर देख के ही अपनी भड़ास निकाल रहे हैं...  और जहां हम पाईरेटेड सी.डी. के विरोध में लड़ रहे हैं... वह उसी का इंतज़ार कर रहे हैं... !  कोई वासेपुर का है तो उसको अपने स्थान और मजहब के कारण समस्या है... ! कोई अपने निजी संबंधो को जोड़ समीक्षा कर रहा है... !  मैं एक नवसिखिया लेखक हुं...  पर रहा न गया इसलिए यह लिख रहा हुं... !  हां एक बात कहना चाहता हुं...  जिसको सिनेमा समझ में ना आती हो... चाहे जिसको अनुराग कश्यप से निजी समस्या हो...  यह उसके लिए नहीं है... !!     
क्या नहीं है इस सिनेमा में....  मनोरंजन... संगीत... विषय... जानकारी.... सेक्स... व्यंग... सरलता.... शानदार अभिनय... कमाल का कैमरा वर्क... और ज़ोरदार निर्देशन.... ! कौन सा ऐसा पहलु है जो आपको याद न रह जाता हो... !  शुरूआत में “क्योंकि सास भी कभी बहु थी” से शानदार शुरूआत... जिसमें सबको वासेपुर में आमंत्रण देती सिरियल की नायिका... और आनेवालों का गोलियों के बौछार से स्वागत... !!   मोबाईल रिंग टोन “ मैं हुं खलनायक” से  तत्काल न दिखने वाले फ़ैजल खान के चरित्र का परिचय... और अगले ही दृश्य में नेता का दोहरा चरित्र... जो अपने ही साथी सुल्तान के लिए पुलिस का घेरा लगा चुका है.... !!
अनाज को लूट सस्ते दाम में बेचकर गरीबों का भला करने वाला शाहिद खान के गैंग का सफ़ाया... और फ़िर... “एक बगल में चांद होगा एक बगल में रोटियां” ....!   कोयले में सना शाहिद खान और उसके मुंह से टपकता खून... और स्लो मोशन में फ़िल्माया गया यह दृश्य...  उफ़...!!  उस वक्त की काली दुनिया का लाल सच कह रहा है...!     बचपन से सर मुडाये सरदार खान का सहजता से सवारियों को आवाज लगाना...  और बिना सोचे बीबी को प्रेग्नेन्ट कर बच्चों की लाईन लगा देना... उस समय के भारत देश की बढ़ती आबादी के तरफ़ इशारा करती है... ! माफ़ियाओं के बदलते परिदृश्य... और पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता उनका व्यवसाय....  पहले अनाज की लूट... फ़िर कोयला... फ़िर फ़ैक्ट्रियों से बुरादे और उनके कबाड़.... फ़िर बालु की चोरी... और तलाबों पर कब्जा... क्या नहीं दिखाया गया इसमें... !!   
जिस पेट्रोल पंप को लूट कर सरदार खान ने अपराध की शुरूआत की...  जहां से भागते समय उसने अपना चप्पल तक नहीं छोडा...  वहीं पेट्रोल भराते समय... इस दुनिया को छोड अलविदा हो गया...!    अभिनय में हर किरदार ने असर छोड़ा है.... सरेआम चाकु से गोद कर किसी की हत्या कर देने वाले सरदार खान के बेटे को जब गोली लगती है तो उसकी बेचैनी देखते बनती है... ! बदन पर सिर्फ़ तौलिया लपेटे... धान पिटती औरतों के बगल से मनोज बाजपयी का गुजरना हो या मुंह में दातुन लिये... लूंगी और गंजी पहने कन्धे पर तौलिया रक्खे बंगालन का बोझ उठाने को तैयार सरदार खान... जो उसके जाते ही.... सुनो.....!!  कहकर जिस तरह से मुस्कुराता है... लगता है सिनेमा में नहीं... कुछ सामने घट गया... !!  खाना खाते समय बंगालन को निहारता सरदार जब लड़की कि शिकायत सुनता है तो उसपर जो गुजरता है वह मनोज बाजपयी ही तराश सकते थे... ऐसा कहुं तो गलत ना होगा... !!  
बिना परमिशन के फ़ैजल जब अपनी प्रेमिका का हाथ छूता है... और उसकी डांट सुनता है ... और तभी एक बकरी पीछे कनईल के फ़ूल के पत्तो को खाने आ जाती है... इतना वास्तविक लगता है... कि बड़े – बड़े पार्क और लाखों खर्च कर सुन्दर विदेशी स्थल पर गाने के लिए नाचते हीरो – हिरोईन फ़ीके पड़ जाते हैं.. !  पहली बार बनारस में पिस्टल मिलने के बाद आईने के सामने अमिताभ बन झुठी फ़ायर करता फ़ैजल कब सच में यादव का सीना छलनी कर देता है पता ही नहीं चलता... !  सरदार खान के बाप को जिस यादव ने अपनी गोली का शिकार बनाया... सरदार खान के बेटे ने उसे अपनी गोली से उडा दिया...! न जानते हुए भी फ़ैजल खान अपने दादा के खुन का बदला ले लेता है... और दर्शक के मन को शांति मिल जाती है...!  नवाज़ ने हर जगह कमाल किया है... ! 
जहां कबुतर भी एक पंख से उडता है और दुसरे से अपना इज्जत बचाता है... जहां सुल्तान के डर से पुलिस सबुत में मिली अंगुली भी छोड़ चली जाती है... वहां सरदार खान बम के धमाको से पूरे कसाई कस्बे को उड़ा देता है... !   पंकज त्रिपाठी ने हर दृश्य में सहज दिखे हैं... चाहे वह चप्पल निकालकर पिटाई करने वाला सीन हो या... अपने मामा को लहंगा पहनकर नाचने के लिए कहने वाला दृश्य.. !  और वहां तो मजा आ जाता है जब सुल्तान रामाधीर सिंह के घर पहुंचता है और मुसलमान को खाने के लिए चिनी – मिट्टी के बर्तन की बात होती है... हम झट से कुछ पल के लिए बचपन में चले जाते हैं जब अनवर चाचा घर आते थे और उन्हे बाहर रखे बर्तन में ही खाना दिया जाता था... ! और फ़िर  सुल्तान जब  औटोमेटिक गन की मांग करता हैं...   किसी के खांसने की आवाज के बाद लगा सिनेमा देख रहा हूं... !   
रामाधीर सिंह बने निर्देशक तिगमांशु जी अपनी फ़िल्मों के बाद  अभिनय में अपनी धाक जमा जाते हैं... ! विधायक बेटे को पीटने वाला दृश्य और उसमें अपनी पत्नी को कोसता रामाधीर.. “ तुम्ही जनी हो इस नालायक को” जैसे उसने अकेले बच्चा पैदा किया हो... !  लेखक पुरूष मानसिकता को उजागर कर जाता है... !  रामाधीर और कुरैशी के बीच की वार्ता और बच्चे के अवशेष लाने की बात... और असहज दिखता कुरैशी का सहज अभिनय करते विपीन शर्मा ने कमाल कर दिया है... !
इतना कुछ लिखने के बाद लोगों को शायद यह न लगे की मैं सिर्फ़ तारीफ़ का पूल बांध रहा हूं... पूरी फ़िल्म में कुछ खटकता है तो वह रामधारी सिंह का बेटा... जो शायद सहज अभिनय के बजाय...  स्कुली एक्टींग करता दिखता है...  गाने जितना प्रभावित एलबम में करते हैं शायद फ़िल्म में नहीं कर पाते... !  हां... वुमनिया और बिहार के लाला जरूर कमाल है... !  पर अनुराग भगवान तो नहीं कि उनसे गलती ना हो... !  इतने सारी अच्छाईयों में ये गलती छुप जाती है...!
राजीव रवि ने कैमरा भी कमाल किया है... उन्होने हर सीन को सहज बना दिया है... जहां तक मैं तकनीक समझता हुं... और फ़िल्म को दिमाग में दैड़ाता हुं तो यह दिखता है शायद क्रेन , जिम्मीज़िप कहीं लगाया ही नहीं गया है और उसकी कहीं जरूरत लगती भी नहीं है...! राजीव जी कमाल ...!!  
हां... एक बात सबसे खास है... लोक गीत और गायको की खोज जिस तरीके से अनुराग कश्यप ने की है वह कमाल है... !  जहां टी.वी. रियलिटी शो में रियलिटी से दूर... म्युजिक डायरेक्टरों के पिछलग्गु गायक की खोज हो रही है... वहां अनुराग ने सुजीत... दीपक सरीखे गायको को खोज निकाला है... ! अपने छोटे भाई संजीव के इस लाईन से मैं इतना प्रभावित हूं कि यहा लिख रहा हूं...  “ सुजीत शायद अपना गाया गाना सुन भावुक होकर कहीं एकांत में चला गया होगा  और ठीक इसी समय "सा रे गा मा पा" या "इन्डियन आईडल" का कोई चापलूस, भोंड़ा, बेसुरा, मोटा-तुंदियल, लम्बा-छरहरा, गोरा-चिट्टा जिमनास्ट टाइप 'सिंगर' (गायक या कलाकार नहीं, 'प्लेबैक सिंगर') मुंबई के किसी पब या कैफे में शराब का आखिरी पैग ख़त्म कर रहा होगा  और सुबह - सुबह किसी आइटम नंबर बनाने में लगे हुए म्यूजिक डायरेक्टर के तलवे चाटने पहुँच जायेगा....    ऐसा होता है...  एक तरफ नौशाद को मोहम्मद रफ़ी सड़क पर मिलते हैं या अनुराग कश्यप को सुजीत गया के किसी गाँव में मिल जाता है  वही दूसरी तरफ कुछ 'सिंगर्स' को म्यूजिक डायरेक्टर के तलवे चाटने उसके घर नियमित रूप से पहुंचना पड़ता है...”  अनुराग कश्यप शायद ऐसा इसलिए कर पाते हैं... क्योंकि उन्होंने निर्देशन बेच रहे किसी स्कुल से शिक्षा नहीं ली... और लोग उनका विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अनुराग खुद में एक स्कुल होते जा रहे हैं... !     
लोग फ़िल्म की समीक्षा करते तो अच्छा लगता.... पर आज यहां समीक्षक कम उपेक्षक ज्यादा हो गये हैं... अनुराग कश्यप की फ़िल्म को लोग फ़िल्म की नजर से नहीं देख रहे... यह कोई इतिहास पर आधारित नहीं है... फ़िल्म के शुरूआत में ही लिखा गया है... कुछ पात्र काल्पनिक है... वह कुछ की संख्या कम है या ज्यादा नहीं कहा गया है... और कहानी वासेपुर की नहीं... वासेपुर के कुछ गैंग्स की है... फ़िर अच्छे और बुरे लोग कहां नहीं होते... यह उन बुरे लोगों की कहानी है...  और हां... यह सिनेमा है... डाक्युमेंन्ट्री नहीं....!  सच पर आधारित हो सकती है... सच नहीं... ! मैं समीक्षक नहीं हुं कि स्टार दूं... पर सिनेमा बहुत बेहतरीन नहीं तो बुरी भी नहीं है... !  फ़िल्म में इतनी खासियत तो है कि हम चर्चा कर रहे हैं.... उसके दृश्य जेहन में बस गये है... !   जहां पेड के नीचे नाच रहा स्टार हीरो.... सिक्स पैक बना अपने शरीर की नुमाईश करता मटन की दुकान लग रहा है... वहां लंगोट बाधे मनोज बाजपयी ज्यादा अच्छे लग रहे हैं... !  जहां अमीर इतने अमीर होते हैं कि उनके हेलिकाप्टर घर के सामने उतरता है... भले देश के वास्तविक अमीर टाटा , अंबानी के घर या छत पर हेलीपैड ना हो... वहां विधायक अपने एंबेस्डर कार में ही घुमता दिखता है... !  जहां एक अकेला पूरी दुश्मनो की पलटन उड़ा देता है वहां एक सरदार खान को छलनी करने के लिए छ: छ: लोग लगातार गोलिया चलाते हैं... ! और जिआ हो बिहार के लाला... कि उसके बाद जब वह कार से बाहर निकलता है... सारे लोग छुप के तमाशा देख रहे हैं... वह अकेले बढ़ने की कोशिश करता है... उस समय...  एक कम उम्र का लडका ही उसकी तरफ़ बढ़ने की कोशिश करता है...  क्योंकि शायद उस उम्र में डर नहीं होता... !!  
मैं फ़िल्म के बहाव में ऐसे बहने लगा हूं... कि लिखु तो और भी बहुत कुछ लिख सकता हुं... पर मेरे सिरियल “अफ़सर बिटिया”  के क्रियेटीव का फ़ोन आया है...  सर...  दो सीन लिख के भेज दिजीए...   इसलिए इसे यही छोड़ता हूं...  वक्त मिला तो और कुछ भी लिखुंगा... !! धन्यवाद....!!     

Saturday 15 October 2011

ये मैं किस कद को कैद करने चला हूं ....
असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...
          यूं ही लेटे - लेटे ...  भीगी गुलाबी रेत पर 
          समन्दर की गहराई को पन्नो में समेट कर 
          दे कहानी िक शक्ल... किताब रचने चला हूं ... 
          असमंजस है ...   न जाने किधर चला हूं ...
बातों - बातों में बात इतनी बढती जाती है... 
पन्ने भरते जाते हैं ... कहानी सिमटती जाती है ...
उस सिमटती कहानी को शब्द - जाल देकर
नई शक्ल  में ... किताब रचने चला हूं ...
असमंजस है ...   न जाने किधर चला हूं ...
          रचित किरदारों को अपने आस - पास देखकर 
          उनके विपदा , करूणा और ममता को भेदकर
          उनके जीवन - मुल्यों को कागज़ में समेटकर 
          दे कहानी िक शक्ल...  किताब रचने चला हूं ... 
          असमंजस है ...     न जाने किधर चला हूं ... 
यूं ही रचि जाती है अगर किताबों कि दुनिया.. 
कह आईना...   सच समाजों कि दुनिया... 
तो सच ही कहा है किसी ने अपने दिल से... 
की ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है...
पर मन मसोसकर... लेटे भीगी गुलाबी रेत पर 
            ये मैं किस कद को कैद करने चला हूं ....
            असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...