ये मैं किस कद को कैद करने चला हूं ....
असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...
यूं ही लेटे - लेटे ... भीगी गुलाबी रेत पर
समन्दर की गहराई को पन्नो में समेट कर
दे कहानी िक शक्ल... किताब रचने चला हूं ...
असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...
बातों - बातों में बात इतनी बढती जाती है...
पन्ने भरते जाते हैं ... कहानी सिमटती जाती है ...
उस सिमटती कहानी को शब्द - जाल देकर
नई शक्ल में ... किताब रचने चला हूं ...
असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...
रचित किरदारों को अपने आस - पास देखकर
उनके विपदा , करूणा और ममता को भेदकर
उनके जीवन - मुल्यों को कागज़ में समेटकर
दे कहानी िक शक्ल... किताब रचने चला हूं ...
असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...
यूं ही रचि जाती है अगर किताबों कि दुनिया..
कह आईना... सच समाजों कि दुनिया...
तो सच ही कहा है किसी ने अपने दिल से...
की ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है...
पर मन मसोसकर... लेटे भीगी गुलाबी रेत पर
ये मैं किस कद को कैद करने चला हूं ....
असमंजस है ... न जाने किधर चला हूं ...
Saturday, 15 October 2011
Tuesday, 11 October 2011
Sunday, 25 September 2011
मैं मन किस ओर जाऊं...
हरदिन... हरपल सोच रहा ... मैं मन किस ओर जाऊं...
रूपहली सुबह की धूप सेकुं... या शहर यौवन को ललचाऊं...
शावर के सुनहरे संगम से खेलूं... या मचलती नदि में नहाऊं...
खेतों की हरियाली में नाचुं... या पंख हवा में फ़हराऊं...
कोयल की कूक सुनु मैं... या खुद मधूर गीत गाऊं...
खुद के सुख में सुख पाऊं.... या देश गौरव में मिट जाऊं....
हरदिन.... हरपल सोच रहा... मैं मन किस ओर जाऊं...
रूपहली सुबह की धूप सेकुं... या शहर यौवन को ललचाऊं...
शावर के सुनहरे संगम से खेलूं... या मचलती नदि में नहाऊं...
खेतों की हरियाली में नाचुं... या पंख हवा में फ़हराऊं...
कोयल की कूक सुनु मैं... या खुद मधूर गीत गाऊं...
खुद के सुख में सुख पाऊं.... या देश गौरव में मिट जाऊं....
हरदिन.... हरपल सोच रहा... मैं मन किस ओर जाऊं...
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